हम भी तो.......(सत्यम शिवम)
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Er. सत्यम शिवम
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कविता
हम भी तो नभ के पंक्षी से,
बस ढ़ुँढ़ रहे अपना ठिकाना,
क्या है पता अगले ही पल,
किसको पड़े यहाँ से जाना।
है जिंदगानी बस यहाँ वहाँ,
कल थे कहाँ,आज है कहाँ,
न जाने कैसा हो कल का जहाँ?
हम भी तो वन के मोर से,
बरखा का बाट जोह रहे,
खुशियों से हर पल नाच कर,
दुख की गठरी को ढ़ो रहे।
बस मन ही मन में खुश हो के,
कल के सपने संजोते है,
यादों की मालाओं में,
पल पल के मोती पिरोते है।
हम भी तो रात में तारों से,
टुट के दुनिया बसाते है,
टुटते तारों से जो माँगो,
वो पल में मिल जाते है।
बस रात भर का होता है,
अपना नगर निराला सा,
हर ख्वाब होता है,
बस टिमटिमाते तारों सा।
जो दिन में खो जाते है,
बस रात में नजर आते है,
और हमको लुभाते है।
हम भी तो बगिया के फूल से,
खिलते और मुरझाते है,
खुशबु की नदियाँ बहा के,
गुलजार का गुलशन सजाते है।
ये फूल तो मुरझा जाते है,
बस खुशबु ही रह जाती है,
हमारे बाद हमारी पहचान,
हमारे सुकर्म ही तो बनाती है।
हम भी तो नदियों के जल से,
खुद अपना जल नहीं पीते है,
धरती की छाती सींच कर,
हरी भरी दुनिया उगाते है।
नदियाँ तो सागर में मिल जाती है,
बस जल ही जल रह जाती है,
अपना ठिकाना पा के वो,
बड़ी चैन की साँस पाती है।
हम भी तो वृक्ष के फल से,
खुद अपना फल नहीं खाते है,
राही की भूख शांत कर,
मँजिल का राह दिखाते है।
राही तरु की छावँ में,
थक के जो आश्रय पाता है,
कितना सुकुन तब दिल को,
बस ये सोच के आता है,
किसी को दे के ठिकाना अपना क्या जाता है।
बस ढ़ुँढ़ रहे अपना ठिकाना,
क्या है पता अगले ही पल,
किसको पड़े यहाँ से जाना।
है जिंदगानी बस यहाँ वहाँ,
कल थे कहाँ,आज है कहाँ,
न जाने कैसा हो कल का जहाँ?
हम भी तो वन के मोर से,
बरखा का बाट जोह रहे,
खुशियों से हर पल नाच कर,
दुख की गठरी को ढ़ो रहे।
बस मन ही मन में खुश हो के,
कल के सपने संजोते है,
यादों की मालाओं में,
पल पल के मोती पिरोते है।
हम भी तो रात में तारों से,
टुट के दुनिया बसाते है,
टुटते तारों से जो माँगो,
वो पल में मिल जाते है।
बस रात भर का होता है,
अपना नगर निराला सा,
हर ख्वाब होता है,
बस टिमटिमाते तारों सा।
जो दिन में खो जाते है,
बस रात में नजर आते है,
और हमको लुभाते है।
हम भी तो बगिया के फूल से,
खिलते और मुरझाते है,
खुशबु की नदियाँ बहा के,
गुलजार का गुलशन सजाते है।
ये फूल तो मुरझा जाते है,
बस खुशबु ही रह जाती है,
हमारे बाद हमारी पहचान,
हमारे सुकर्म ही तो बनाती है।
हम भी तो नदियों के जल से,
खुद अपना जल नहीं पीते है,
धरती की छाती सींच कर,
हरी भरी दुनिया उगाते है।
नदियाँ तो सागर में मिल जाती है,
बस जल ही जल रह जाती है,
अपना ठिकाना पा के वो,
बड़ी चैन की साँस पाती है।
हम भी तो वृक्ष के फल से,
खुद अपना फल नहीं खाते है,
राही की भूख शांत कर,
मँजिल का राह दिखाते है।
राही तरु की छावँ में,
थक के जो आश्रय पाता है,
कितना सुकुन तब दिल को,
बस ये सोच के आता है,
किसी को दे के ठिकाना अपना क्या जाता है।
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मैं कहता हूं कि आप अपनी भाषा में बोलें, अपनी भाषा में लिखें।उनको गरज होगी तो वे हमारी बात सुनेंगे। मैं अपनी बात अपनी भाषा में कहूंगा।*जिसको गरज होगी वह सुनेगा। आप इस प्रतिज्ञा के साथ काम करेंगे तो हिंदी भाषा का दर्जा बढ़ेगा। महात्मा गांधी
अंग्रेजी का माध्यम भारतीयों की शिक्षा में सबसे बड़ा कठिन विघ्न है।...सभ्य संसार के किसी भी जन समुदाय की
शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"महामना मदनमोहन मालवीय
23 February 2011 at 6:28 pm
बहुत ही सुन्दर कविता।
23 February 2011 at 8:21 pm
राही तरु की छावँ में,
थक के जो आश्रय पाता है,
कितना सुकुन तब दिल को,
बस ये सोच के आता है,
किसी को दे के ठिकाना अपना क्या जाता है।
बहुत खूब.... सुंदर
24 February 2011 at 4:37 am
ये फूल तो मुरझा जाते है,
बस खुशबु ही रह जाती है,
हमारे बाद हमारी पहचान,
हमारे सुकर्म ही तो बनाती है।...
बहुत सुंदर.
24 February 2011 at 6:22 am
हम भी तो वृक्ष के फल से,
खुद अपना फल नहीं खाते है,
राही की भूख शांत कर,
मँजिल का राह दिखाते है।
बहुत सुन्दर सार्थक सन्देश देती पाँक्तियाँ। दूसरों के लिये जीने की कला सिखाती हुयी। शुभम जी को बधाई इस कविता के लिये।
24 February 2011 at 6:28 pm
राही तरु की छावँ में,
थक के जो आश्रय पाता है,
कितना सुकुन तब दिल को,
बस ये सोच के आता है,
किसी को दे के ठिकाना अपना क्या जाता है।
sundar sandesh
24 February 2011 at 8:36 pm
बहुत सुंदर कविता, सुंदर भाव, धन्यवाद
3 November 2016 at 4:07 am
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