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राज भाटिय़ा
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चित्र
अगर ऎसे शोचालये हमारे शहरो मै भी बन जाये तो?? हर पेड के नीचे....
आप भी कुछ अपनी राय दे, ताकि इस विषय पर आगे सोचा जाये....:)
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मैं कहता हूं कि आप अपनी भाषा में बोलें, अपनी भाषा में लिखें।उनको गरज होगी तो वे हमारी बात सुनेंगे। मैं अपनी बात अपनी भाषा में कहूंगा।*जिसको गरज होगी वह सुनेगा। आप इस प्रतिज्ञा के साथ काम करेंगे तो हिंदी भाषा का दर्जा बढ़ेगा। महात्मा गांधी
अंग्रेजी का माध्यम भारतीयों की शिक्षा में सबसे बड़ा कठिन विघ्न है।...सभ्य संसार के किसी भी जन समुदाय की
शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"महामना मदनमोहन मालवीय
29 January 2009 at 2:25 am
भारत में तो ये परम्परा रही है लेकिन ईंटों के कमोड पर.... हमने तो मैदान, रेत के टीलों, खड्डों, रेललाइनों, जोहड़ के किनारों, गन्ने के खेतों और भी न जाने कहां-कहां निवृति सुख भरपूर लिया है. हां कमोड का आइडिया ठीक है अगर चोरी ना हो तो...
29 January 2009 at 3:13 am
हा-हा-हा....
29 January 2009 at 3:35 am
अच्छा है..
योगेन्द्र जी की बात भी गौर करने लायक है...
29 January 2009 at 3:57 am
हां, पर इस पर एक छतरी बारिश से बचने के लिये जरुर लगवाई जानी चाहिये. :)
रामराम.
29 January 2009 at 6:13 am
देखकर तो हँसी आ गई।
29 January 2009 at 8:17 am
चलते रास्तो पर कही नज़र पड़ी तो देखा ,
रूकते ढीकानो पर रुककर भी देखा,
न जाने कहा कहां-कहां देखा
पर वो जरूर देखा जहां की मझे लालसा थी
गाड़ियों के बगल मे,बस की आड़ मे,मुड़ती दिवारों पर, गलियों की नालियों पर...
क्योकि आज़ादी में ही मज़ा है खुले का ।
पर आज़ादी कैसी जिसमे एक दुसरे की नज़रों से परहैज़ हो ।
तो क्यू न कुछ एसा सोचे जो ना नज़रों के घेरे मे हो और न समाज की गालियों मे ।
29 January 2009 at 11:48 am
मर्दों के लायक तो ठीक है पर इस तरह खुले में स्त्री के लिए उचित नही ....हाँ अगर चोरी न हो तो पुरूष जिस तरह से खुलेआम करते फिरते हैं इधर उधर वो बंद हो जाएगा ...गंदगी से निजात मिल सकेगी ...
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
29 January 2009 at 2:27 pm
लोग रात में ही उठाकर ले जायेगे भाटिया जी
29 January 2009 at 2:42 pm
सब तो ठीक है पर मेरे विचार से दो समस्यायें आएँगी-
१. इसमें पानी कहाँ से आएगा?
२. निवृत्ति सुख लेने वाले कुछ योजनगंधा लोगों से कौन बचायेगा?
29 January 2009 at 3:50 pm
भाटिया जी, आइडिया तो घणा जोरदार है....
29 January 2009 at 4:54 pm
विचार तो उत्तम है लेकिन डा0 अनुराग की बात पर गौर कीजिएगा।
29 January 2009 at 6:47 pm
बचपन मे हर जगह ही :))
30 January 2009 at 5:59 am
सुझाव क्या दूँ मुझे तो अभी भी शर्म आ रहा है |
एक कोना जहाँ सुकून था वह भी आम जनता की पहुच से दूर नही रह सका |
:-)
31 January 2009 at 6:33 am
क्या खूब चित्र हैं, मुझे तो इन्तजार रहता है.
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